आनन्द स्वरूप आर्य सरस्वती विद्या मन्दिर रूड़की भारतीय शिक्षा समिति उत्तराखण्ड़ द्वारा आयोजित नवीन आचार्य अभ्यास वर्ग के द्वितीय दिवस का शुभारम्भ मा0 भुवनचन्द्र जी (प्रान्त संगठन मंत्री उत्तराखण्ड़), श्री नत्थीलाल बंगवाल (सम्भाग निरीक्षक गढ़वाल) श्री प्रधानाचार्य श्री अमरदीप सिंह (प्रान्त प्रशिक्षण प्रमुख उत्तराखंण्ड) एवं श्री चन्दन नकोटी, श्री रविन्द्र नेगी, एवं श्री शिशुपाल रावत (प्रशिक्षण टोली सदस्य) के द्वारा माँ सरस्वती के चित्र के समक्ष दीप प्रज्वलित एवं पुष्पार्चन कर किया गया।
मा0 भुवनचन्द्र जी (प्रान्त संगठन मंत्री उत्तराखण्ड़), ने आदर्श आचार्य की संकल्पना को प्रतिपादित करते हुए कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अधार पर विद्यालयों में बाल केन्द्रित व क्रिया आधारित शिक्षा को अपनाने पर जोर देते हुए अपनी शिक्षण कौशल को विकसित करने पर बल दिया। उन्होने कहा कि विद्या भारती की शिक्षण पद्धति अभिनव है। पंचपदीय शिक्षण पद्धिति से शिक्षण कार्य कराया जाने के अनेकों परिणाम दिखाई पडते है। जिस कारण विद्या भारती द्वारा संचालित विद्यालय समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं।
प्रशिक्षण वर्ग में आचार्य की भूमिका पर विस्तृत विषय रखा है, उन्होने कहा कि आचार्य स्वयं के आचरण से युक्त शिक्षा प्रदान करने वाले होते हैं। ऐसे में बालक के शैक्षणिक स्तर के साथ-साथ उसके अन्य क्रियाकलापो पर भी हमारा ध्यान रहना चाहिए। हमारे आचरण व व्यवहार से समाज में विद्यालय का मान बढ़े, बालको में श्रद्धा का भाव बढे और हम स्वयं के विकास हेतु भी समय-समय नित नवीन शैक्षिक गतिविधियोें को जाने व समझ कर अपने कक्षा-कक्ष में छात्र/छात्राओं को दें। जिससे हमारे विद्यालयों के छात्र/छात्राएँ समाज में आगे बढ सके। आजादी के बाद भारतीय शिक्षा नीति में जो परिवर्तन होने थे उनमें कोई बदलाव नही हो पाया, परिणाम स्वरूप राष्ट्रीय विचार धारा से ओत-प्रोत संगठन विद्या भारती को अपनी संस्कृति व प्राचीन मान्यताओं और परम्पराओं को संरक्षित करने हेतु आगे आना पड़ा। उन्होने कहा कि आचार्य व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत होता है।
श्री नत्थी लाल बंगवाल जी नवीन आचार्य प्रशिक्षण वर्ग में आये प्रशिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि विद्यालय सरस्वती के पवित्र मन्दिर होते हैं, समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में अवस्थित हैं, आवश्यकता है उसके जागरण के लिए उपयुक्त वातावरण की, इस वातावरण के निर्माण हेतु किये गये संगठित प्रयास की संज्ञा ही विद्यालय है। विद्यालय कोई ईट, गारे का बना हुआ भवन मात्र नहीं है। विद्यालय आध्यात्मिक संगठन है, जिसका अपना स्वयं का विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। प्राचीन काल मे विद्यालय प्रकृति की गोद में होते थ,े यह अवधारणा गुरूकुल आश्रमों एवं विश्वविद्यालयों में पुष्पित एवं पल्लवित होती थी, ये सभी शिक्षा के केन्द्र नगरों एवं कोलाहल से दूर कहीं जंगलों में होते थे। श्री रविन्द्र नाथ टैगोर ने प्राचीन भारत की गुरूकुल आश्रम पद्धति का समर्थन करते हुए कहा है कि ‘‘शिक्षा के लिए अब भी जंगल एवं वनों की आवश्यकता है। इस प्रकार के वातावरण के लिए प्रत्येक माता-पिता व शिशु तृषित नेत्रों से निहारते रहते हैं। भैया/बहिनों के विकास में वैयक्तिक प्रतिभा के साथ उस वातावरण का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है जिसमें वह पल्लवित व पोषित होता है इसके तीन पक्ष हैं- विद्यालय, परिवार एवं समाज।
नैतिक शिक्षा का समावेश करना, अनुशासन एवं समयबद्धता, सम्मान एवं आदर करना सिखाना, संस्कृति और परंपराओं का ज्ञान करवाना, सहिष्णुता और सहनशीलता प्रति संवेदनशील होना, सकारात्मक सोच एवं दृष्टिकोण के प्रति सजग होना, समाज सेवा और सहयोग करना, समानता एवं न्याय की शिक्षा देना, स्वस्थ और स्वच्छता के संस्कार विकसित करना एवं पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों का विकास करना। हमारा उद्ेदेश्य पंचपदी शिक्षण, आधार भूत विषय तथा पंचकोष का विकास करना। दृढ़ संकल्प, पक्का इरादा, स्वाध्याय की एकाग्रता, विनम्रता, आत्मविश्वास इन गुणों को लेकर स्वयं का विकास करना।
अमरदीप सिंह
प्रधानाचार्य
Ishwar Chand reporter Sahara tv Roorkee
